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हिंदी साहित्य : प्रगतिवादी कवियों की प्रमुख रचनाए

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इस पोस्ट में हम आपके साथ हिंदी साहित्य के अंतर्गत प्रगतिवादी कवियों की प्रमुख रचनाओं (Pragativadi Kavi Aur Unki Rachnaye) को आप सभी के साथ साझा कर रहे हैं, जो इस प्रकार है। 

क्र.

प्रगतिवादी कवि

रचनाएं 

1. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1897-1962) 
  • कुकुरमुत्ता
  • अणिमा 
  • नए पत्ते 
  •  बेला 
  • अर्चना
2. सुमित्रानंदन पंत(1900-1970) 
  • युगांत
  • युगवाणी
  • ग्राम्या 
3. नरेन्द्र शर्मा(1913-1989)
  • प्रवासी के गीत
  • पलाश-वन 
  • मिट्टी और फूल 
  • अग्निशस्य
4. रामेश्वर शुक्ल अंचल(1915 -1996) 
  • किरण-वेला
  • लाल चुनर
5. रामधारी सिंह दिनकर(1908- 1974) 
  • कुरुक्षेत्र 
  • रश्मिरथी 
  • परशुराम की प्रतीक्षा
6. बालकृष्ण शर्मा नवीन(1897- 1960)
  • कंकुम 
  • अपलक 
  • रश्मि-रेखा
  • क्वासि
7. जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद(1907-1986)
  • बलिपथ के गीत
  • भूमि की अनुभुति 
  • पंखुरियां।
8. केदारनाथ अग्रवाल(1911-2000) 
  • युग की गंगा
  • लोक तथा आलोक 
  • फूल नहीं रंग बोलते हैं 
  • नींद के बादल
9. नागार्जुन(1910-1998) 
  • युगधारा
  • प्यासी पथराई 
  • आंखे 
  • सतरंगे पंखों वाली
  • तुमने कहा था
  • तालाब की मछलियां 
  • हजार-हजार बांहों वाली 
  • पुरानी जूतियों का कोरस 
  • भस्मासुर(खंडकाव्य)
10. रांगेय-राघव(1923-1962)
  • अजेय खंडहर 
  • मेधावी 
  • पांचाली 
  • राह के दीपक 
  • पिघलते पत्थर
11. शिव-मंगल सिंह सुमन( 1915- 2002) 
  • हिल्लोल
  • जीवन के गान 
  • प्रलय सृजन
12. उदयशंकर भट्ट(1898- 1964)
  • अमृत और विष
13. राम विलास शर्मा(1912- 2000)  
  • रूप-तरंग
14. माखन लाल चतुर्वेदी(1888- 1970)
  • मानव
15. त्रिलोचन(1917- 2007) 
  • मिट्टी की बात 
  • धरती 

Also Read | Environmental Studies Notes for CTET, UPTET, MPTET, CGTET In Hindi

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हिन्दी ग्रामर: संज्ञा एवं सर्वनाम जाने!भेद, परिभाषा और उदहारण

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हिन्दी व्याकरण की प्रारम्भिक शुरुआत संज्ञा एवं सर्वनाम से होती है। हिन्दी भाषा को शुद्ध रूप से पढ़ने, बोलने समझने मे हिन्दी व्याकरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस आर्टिकल मे हम हिन्दी व्याकरण के अंतर्गत संज्ञा एवं सर्वनाम का विस्तार से अध्ययन करेंगे ये लेख उन सभी विध्यार्थियों के लिए सहायक है जो स्कूली शिक्षा ले रहे है या प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है।

संज्ञा- NOUN

किसी व्यक्ति,वस्तु,स्थान आदि के नाम को संज्ञा कहा जाता है।संसार में जितने भी चीजे(वस्तु) है सभी का कोई ना कोई नाम है।हिंदी व्याकरण में नाम को ही संज्ञा कहा जाता है।

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जैसे –
व्यक्तियों केनाम:- महात्मा गाँधी, अटल बिहारीवाजपेयी,गाय, बकरी, मच्छरआदि।
वस्तुओंकेनाम:- कलम, मेज, किताब, अलमारी, साइकिल, रेडिओ आदि।
स्थानों केनाम:- दिल्ली, हरिद्वार, शिमला, बनारस, हिमालय , गंगा आदि।
भावों केनाम:- प्रेम, घृणा, क्रोध, लड़ाई, बुराई, बुढ़ापा, शान्ति आदि।

हिन्दी व्याकरण में संज्ञा के 5 भेद/ प्रकार होते हैं:-

  1. व्यक्तिवाचक संज्ञा | Proper Noun
  2. जातिवाचक संज्ञा | Common Noun
  3. भाववाचक संज्ञा | Abstract Noun
  4. समूहवाचक संज्ञा | Collective Noun
  5. द्रव्यवाचक संज्ञा | Material Noun

संज्ञा के इन पाँच भेद के अलावा  उत्पत्ति के आधार पर संज्ञा के तीन भेद होते हैं (क) रूढ़ (ख) यौगिक (ग) योगरूढ़ (इन्हे विस्तार से जाने…)

1. व्यक्तिवाचक संज्ञा –

जिस शब्द से किसी एक वस्तु या व्यक्ति का बोध होता है, उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे – रमेश, महेश, गंगा, हिमालय।

व्यक्तिवाचक संज्ञा में व्यक्तियों, दिशाओं, देशों, राष्ट्रीयता, समुद्रों, नदियों, पर्वतों, सड़कों, पुस्तकों, समाचार पत्रों, घटनाओं, दिन-महीनों, त्यौहार-उत्सवों इत्यादि को स्थान दिया जाता है।

  • उदाहरण : श्याम, सुरेश, उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, भारत, भारतीय, हिन्द, महासागर, हिमालय, दिल्ली, ऋग्वेद, दैनिक जागरण, मई, बुधवार, होली, दिवाली जैसे शब्द व्यक्तिवाचक शब्द हैं।

2. जातिवाचक संज्ञा –

जिस शब्द से एक ही प्रकार की वस्तुओं, व्यक्तियों तथा प्रवृत्तियों का बोध हो तो उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। संबंधियों, व्यवसायों, पदों तथा कार्यो, पशु-पक्षियों, वस्तुओं तथा प्राकृतिक तत्वों के नाम जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत आते हैं।

  • उदाहरण : भाई, बहन, प्रोफेसर, मनुष्य, नदी, घोड़ा, गाय, पुस्तक, वर्षा, ज्वालामुखी, राजा, मंत्री, कुर्सी, घोड़ा, बनिया, ब्राम्हण, लड़का, नर, नारी, आदमी, औरत, पहाड़, नदी, घाटी, समुद्र, द्वीप, तालाब, अनाज जैसे शब्द जातिवाचक संज्ञा के उदाहरण है।

3. भाववाचक संज्ञा –

जिस शब्द से किसी व्यक्ति या वस्तु के गुण या धर्म, दशा तथा कार्य व्यापार का बोध होता है, उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं।

प्रत्येक पदार्थ का अपना एक स्वभाव होता है। मनुष्य का स्वभाव मनुष्यत्व तथा पशु का हरकत पशुत्व कहलाता है।

भाववाचक संज्ञा के एक शब्द से एक ही शब्द का बोध होता है, इस कारण ऐसे शब्दों का प्रयोग उसके उसी रूप में होता है। बहुवचन के प्रयोग संभव नहीं होते।

  • उदाहरण : लंबाई, नम्रता, चाल, समझ, मनुष्यत्व, देवत्व, पशुत्व, अपनापन, बंधुत्व, मर्दाना, शीतलता, मिठास, तीखापन, बुढ़ापा, मित्रता, गर्मी, सर्दी, निजत्व, मित्रता, पढ़ाई, लड़ाई, कड़ाई, प्रवाह,इत्यादि भाववाचक संज्ञा के उदाहरण है।

भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण जातिवाचक संज्ञा, विशेषण, क्रिया, सर्वनाम तथा अव्यय में प्रत्यय लगाकर होता है।

भाववाचक संज्ञा का निर्माण | Constructive Noun

अ) जातिवाचक संज्ञा से –

बूढ़ा – बुढापा, लड़का – लड़कपन, मित्र – मित्रता, मनुष्य – मनुष्यत्व

ब) विशेषण से –

गर्म – गर्मी, मीठा – मिठास, कठोर – कठोरता, नम्र – नम्रता

स) क्रिया से –

चढ़ना – चढ़ाई, पढ़ना – पढ़ाई, रोना – रूलाई, दौड़ना – दौड़

द) सर्वनाम से –

अपना – अपनापन, निज – निजत्व

इ) अव्यय से –

दूर – दूरी, समीप – समीपत्व

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4. समूहवाचक संज्ञा –

जिस शब्द से वस्तु अथवा व्यक्ति के समूह अथवा बहुलता का बोध हो उसे समूहवाचक संज्ञा कहते है। सभा, दाल, संघ, गुच्छा, कुंज इत्यादि शब्द समूह का बोध कराते हैं।

  • उदाहरण: मेला भीड़, बाजार, प्रदर्शन, रैली, सेना, जुलूस, पार्टी, कुंज, धौंद, जमावड़ा, सैलाब, यूथ, समुदाय, हुजूम, सेना, झुण्ड, गिरोह, इत्यादि समूहवाचक संज्ञा के उदाहरण है।

5. द्रव्यवाचक संज्ञा –

जिस शब्द से किसी धातु, द्रव तथा ऐसी वस्तुओं, जिसे नापा-तौला जा सके, का बोध हो, द्रव्यवाचक संज्ञा कहलाती है।

  • उदाहरण: दूध, दही, सोना, चांदी, लोहा, लकड़ी, पानी, पीतल, तांबा, तेजाब, शराब, दूध, घी, दही, जल, खून, तेल, पारा इत्यादि शब्द द्रव्यवाचक संज्ञा के उदाहरण है।

सर्वनाम – (Pronoun)

जिन शब्दों का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर किया जाता है, उन्हें सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में- सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते है, जो पूर्वापरसंबध से किसी भी संज्ञा के बदले आता है।

सर्वनाम के 6 भेद होते है-

सर्वनाम के छ: भेद होते है-
(1)पुरुषवाचक सर्वनाम (Personal pronoun)
(2)निश्चयवाचक सर्वनाम (Demonstrative pronoun)
(3)अनिश्चयवाचक सर्वनाम (Indefinite pronoun)
(4)संबंधवाचक सर्वनाम (Relative Pronoun)
(5)प्रश्नवाचक सर्वनाम (Interrogative Pronoun)
(6)निजवाचक सर्वनाम (Reflexive Pronoun)

1. पुरुषवाचक सर्वनाम

जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग वक्ता द्वारा खुद के लिए या दुसरो के लिए किया जाता है, उसे पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं।

जैसे – मैं, हम (वक्ता द्वारा खुद के लिए), तुम और आप (सुनने वाले के लिए) और यह, वह, ये, वे (किसी और के बारे में बात करने के लिए) आदि।

पुरुषवाचक सर्वनाम के उदाहरण:

नीचे लिखे उदाहरणों को देखें –

  • मैं फिल्म देखना चाहता हूँ।
  • मैं घर जाना चाहती हूँ।
  • आप कहते हैं तो ठीक ही होगा।
  • तुम जब तक आये तब तक वह चला गया।
  • आजकल आप कहाँ रहते हैं।
  • वह पढने में बहुत तेज है।
  • यह व्यक्ति विश्वसनीय नहीं है।

पुरुषवाचक सर्वनाम के भेद

पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद होते हैं -:

  1. उत्तमपुरुष : जिन शब्दों का प्रयोग बोलने वाला खुद के लिए करता है। इसके अंतर्गत मैं, मेरा, मेरे, मेरी, मुझे, मुझको, हम, हमें, हमको, हमारा, हमारे, हमारी  आदि आते हैं। जैसे – मैं फुटबॉल खेलता हूँ। हम दो, हमारे दो।
  2. मध्यम पुरुष : जिन शब्दों का प्रयोग सुनने वाले के लिए किया जाता है। इसके अंतर्गत तू, तुझे, तुझको, तेरा, तेरे, तेरी, तुम, तुम्हे, तुमको, तुम्हारा, तुम्हारे, तुम्हारी, आप आदि आते हैं। जैसे – तुम  बहुत अच्छे हो।
  3. अन्य पुरुष : जिन शब्दों का प्रयोग किसी तीसरे व्यक्ति के बारे में बात करने के लिए होता है। इसके अंतर्गत यहवहयेवे आदि आते हैं। इनमें व्यक्तिवाचक संज्ञा के उदाहरण भी शामिल हैं।

(पुरुषवाचक सर्वनाम के बारे में गहराई से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें – पुरुषवाचक सर्वनाम – भेद, उदाहरण)

2. निजवाचक सर्वनाम

जिन शब्दों का प्रयोग वक्ता किसी चीज़ को अपने साथ दर्शाने या अपनी बताने के लिए करता है, वे निजवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।

निजवाचक सर्वनाम के उदाहरण:

जैसे-:

  • मैं अपने कपडे स्वयं धो लूँगा।
  • मैं  वहां अपने आप चला जाऊंगा।
  • मैं सुबह जल्दी उठता हूँ।
  • अपने देश की सेवा करना ही मेरा लक्षय है।
  • वहां जो गाडी खड़ी है वह मेरी है।

ऊपर दिए वाक्यों में वक्ता ने खुद के लिए स्वयं और अपने आप का प्रयोग  कामों को खुद से जोड़ने के लिए किया।

जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग श्रोता के लिए हो वहाँ यह आदर-सूचक मध्यम पुरुष होता है और जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग अपने लिए हो वहाँ निजवाचक होता है।

(निजवाचक सर्वनाम के बारे में गहराई से पढने के लिए यहाँ क्लिक करें – निजवाचक सर्वनाम – परिभाषा, उदाहरण)

3. निश्चयवाचक सर्वनाम

जिन सर्वनाम शब्दों से किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान की निश्चितता का बोध हो वे शब्द निश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।

निश्चयवाचक सर्वनाम के उदाहरण:

जैसे -: यह, वह आदि।

  • यह कार मेरी है।
  • वह मोटरबाइक तुम्हारी है।
  • ये पुस्तकें मेरी हैं।
  • वे मिठाइयाँ  हैं।
  • यह एक गाय है।
  • वह एक बार फिर प्रथम आया।

ऊपर दिए वाक्यों में यहवहयेवे आदि का इस्तेमाल वस्तु, व्यक्ति आदि की निश्चितता का बोध कराने के लिए किया गया है अतः ये निश्चयवाचक सर्वनाम कहलायेंगे।

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(निश्चयवाचक सर्वनाम के बारे में गहराई से पढने के लिए यहाँ क्लिक करें – निश्चयवाचक सर्वनाम – भेद, उदाहरण)

4. अनिश्चयवाचक सर्वनाम

जिन सर्वनाम शब्दों से वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदि की निश्चितता का बोध नही होता वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।

अनिश्चयवाचक सर्वनाम के उदाहरण:

जैसे-: कुछ, कोई आदि।

  • मुझे कुछ खाना है।
  • मेरे खाने में कुछ गिर गया।
  • मुझे बाज़ार से कुछ लाना है।
  • कोई आ रहा है।
  • मुझे कोई नज़र आ रहा है।
  • तुमसे कोई बात करना चाहता है।
  • किसी ने तुम्हारे लिए ये भेजा है।

ऊपर दिए गए वाक्यों में वक्ता सिर्फ अंदाजा लगा रहा है लेकिन हमे कस्तू या व्यक्ति की निश्चितता का बोध नहीं हो रहा है।  अतः कुछ, कोई आदि शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम की श्रेणी में आते हैं।

(अनिश्चयवाचक सर्वनाम के बारे में गहराई से पढने के लिए यहाँ क्लिक करें – अनिश्चयवाचक सर्वनाम – परिभाषा, उदाहरण)

5. प्रश्नवाचक सर्वनाम

जिन शब्दों का प्रयोग किसी वस्तु, व्यक्ति आदि के बारे में कोई सवाल पूछने या उसके बारे में जान्ने के लिए किया जाता है उन शब्दों को प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं।

प्रश्नवाचक सर्वनाम के उदाहरण:

जैसे- कौनक्याकबकहाँ आदि।

  • देखो तो कौन आया है?
  • आपने क्या खाया है?
  • मैं जानना चाहत हूँ की तुम कौन हो।
  • तुम बाज़ार से क्या लाये हो ?
  • वर्तमान में तुम क्या करते हो ?
  • आप क्या करना बेहद पसंद करते हैं।

ऊपर दिए वाक्यों में ‘कौन‘ तथा ‘क्या‘ शब्दों का प्रयोग करके किसी व्यक्ति या वस्तु के बारे में जानने की कोशिश की जा रही है। अतः ये प्रश्नवाचक सर्वनाम की श्रेणी में आएंगे।

(प्रश्नवाचक सर्वनाम के बारे में गहराई से पढने के लिए यहाँ क्लिक करें – प्रश्नवाचक सर्वनाम – परिभाषा, उदाहरण)

6. सम्बन्धवाचक सर्वनाम

जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग किसी वस्तु या व्यक्ति का सम्बन्ध बताने के लिए किया जाए वे शब्द सम्बन्धवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।

सम्बन्धवाचक सर्वनाम के उदाहरण:

जैसे :- जो-सोजैसा-वैसा आदि।

  • जैसी करनी वैसी भरनी।
  • जो सोवेगा सो खोवेगा जो जागेगा सो पावेगा।
  • जैसा बोओगे वैसा काटोगे।

ऊपर दिए वाक्यों में ‘जो-सो’ व ‘जैसे-वैसे’ शब्दों का प्रयोग करके किसी वस्तु या व्यक्ति में सम्बन्ध बताया जा रहा है। अतःये शब्द सम्बन्धवाचक सर्वनाम की श्रेणी में आते हैं।

इस आर्टिकल मे हमने संज्ञा एवं सर्वनाम का अध्ययन किया है हिन्दी व्याकरण के सभी नोट्स हमारे द्वारा इस ब्लॉग पर शेअर किए गए है। अधिक जानकारी के लिए आप हमारे ब्लॉग को नियमित visit करते रहे।

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Hindi Grammar: रस, छंद, अलंकार | हिंदी व्याकरण संपूर्ण नोट्स | ✔✔

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प्रिय पाठकों, विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी व्याकरण के अंतर्गत रस छंद एवं अलंकार से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं इस पोस्ट में हमने हिंदी व्याकरण के  इस महत्वपूर्ण टॉपिक को बहुत ही सरल  भाषा में समझाने का प्रयास किया है। 

|| Hindi Grammar Notes : Ras Chand Alankar  ||

रस क्या होते हैं? 

रस का शाब्दिक अर्थ होता है – आनन्द। काव्य को पढ़ते या सुनते समय जो आनन्द मिलता है उसे रस कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा माना जाता है। प्राचीन भारतीय वर्ष में रस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। रस -संचार के बिना कोई भी प्रयोग सफल नहीं किया जा सकता था। रस के कारण कविता के पठन , श्रवण और नाटक के अभिनय से देखने वाले लोगों को आनन्द मिलता है।

रस के अंग :-

1. विभाव
2. अनुभाव
3. संचारी भाव
4. स्थायीभाव

1. विभाव :- जो व्यक्ति , पदार्थ, अन्य व्यक्ति के ह्रदय के भावों को जगाते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। इनके आश्रय से रस प्रकट होता है यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते हैं। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वालों को विभाव रस कहते हैं। इन्हें कारण रूप भी कहते हैं। स्थायी भाव के प्रकट होने का मुख्य कारण आलम्बन विभाव होता है। इसी की वजह से रस की स्थिति होती है। जब प्रकट हुए स्थायी भावों को और ज्यादा प्रबुद्ध , उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं।

आलंबन विभाव के पक्ष :-

i आश्रयालंबन
ii. विषयालंबन

i. आश्रयालंबन :- जिसके मन में भाव जगते हैं उसे आश्रयालंबन कहते हैं।

ii. विषयालंबन :- जिसके लिए या जिस की वजह से मन में भाव जगें उसे विषयालंबन कहते हैं।

2. अनुभाव :- मनोगत भाव को व्यक्त करने के लिए शरीर विकार को अनुभाव कहते हैं। वाणी और अंगों के अभिनय द्वारा जिनसे अर्थ प्रकट होता है उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभवों की कोई संख्या निश्चित नहीं हुई है।

जो आठ अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते हैं उन्हें सात्विकभाव कहते हैं। ये अनायास सहजरूप से प्रकट होते हैं | इनकी संख्या आठ होती है।
1. स्तंभ
2. स्वेद
3. रोमांच
4. स्वर – भंग
5. कम्प
6. विवर्णता
7. अश्रु
8. प्रलय

3. संचारी भाव :- जो स्थानीय भावों के साथ संचरण करते हैं वे संचारी भाव कहते हैं। इससे स्थिति भाव की पुष्टि होती है। एक संचारी किसी स्थायी भाव के साथ नहीं रहता है इसलिए ये व्यभिचारी भाव भी कहलाते हैं। इनकी संख्या 33 मानी जाती है।
1. हर्ष
2. चिंता
3. गर्व
4. जड़ता
5. बिबोध
6. स्मृति
7. व्याधि
8. विशाद
9. शंका
10. उत्सुकता
11. आवेग
12. श्रम
13. मद
14. मरण
15. त्रास
16. असूया
17. उग्रता
18. निर्वेद
19. आलस्य
20. उन्माद
21. लज्जा
22. अमर्श
23. चपलता
24. धृति
25. निंद्रा
26. अवहित्था
27. ग्लानि
28. मोह
29. दीनता
30. मति
31. स्वप्न
32. अपस्मार
33. दैन्य
34. सन्त्रास
35. औत्सुक्य
36. चित्रा
37. वितर्क

4. स्थायीभाव :- काव्यचित्रित श्रृंगार रसों के मुलभुत के कारण स्थायीभाव कहलाते हैं। जो मुख्य भाव रसत्व को प्राप्त होते सकते हैं। रसरूप में जिसकी परिणति हो सकती है वे स्थायी होते हैं। स्थाईभावों की स्थिति काफी हद तक स्थायी रहती है। इसमें आठ रसों की स्थिति प्राप्त हो सकती है।

रस के प्रकार :-

1. श्रृंगार रस
2. हास्य रस
3. रौद रस
4. करुण रस
5. वीर रस
6. अदुभत रस
7. वीभत्स रस
8. भयानक रस
9. शांत रस
10. वात्सल्य रस
11. भक्ति

 छंद किसे कहते हैं : 

छंद शब्द ‘ चद ‘ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है – खुश करना। हिंदी साहित्य के अनुसार अक्षर , अक्षरों की संख्या , मात्रा , गणना , यति , गति से संबंधित किसी विषय पर रचना को छंद कहा जाता है। अथार्त निश्चित चरण , लय , गति , वर्ण , मात्रा , यति , तुक , गण से नियोजित पद्य रचना को छंद कहते हैं। अंग्रेजी में छंद को Meta ओर कभी -कभी Verse भी कहते हैं।

छंद के अंग :-

1. चरण और पाद
2. वर्ण और मात्रा

1. चरण या पाद :- एक छंद में चार चरण होते हैं। चरण छंद का चौथा हिस्सा होता है। चरण को पाद भी कहा जाता है। हर पाद में वर्णों या मात्राओं की संख्या निश्चित होती है।

चरण के प्रकार :-

i. समचरण
ii. विषमचरण

i. समचरण :- दूसरे और चौथे चरण को समचरण कहते हैं।

ii. विषमचरण :- पहले और तीसरे चरण को विषमचरण कहा जाता है।

2. वर्ण और मात्रा :- छंद के चरणों को वर्णों की गणना के अनुसार व्यवस्थित किया जाता है। छंद में जो अक्षर प्रयोग होते हैं उन्हें वर्ण कहते हैं।

मात्रा की दृष्टि से वर्ण के प्रकार :-

1. लघु या ह्रस्व
2. गुरु या दीर्घ

1. लघु या ह्रस्व :- 

जिन्हें बोलने में कम समय लगता है उसे लघु या ह्रस्व वर्ण कहते हैं। इसका चिन्ह (1) होता है।

2. गुरु या दीर्घ :- जिन्हें बोलने में लघु वर्ण से ज्यादा समय लगता है उन्हें गुरु या दीर्घ वर्ण कहते हैं। इसका चिन्ह (:) होता है।

छंद के अंग :-

1. मात्रा
2. यति
3. गति
4. तुक
5. गण

1. छंद में मात्रा का अर्थ :- वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे ही मात्रा कहा जाता है। अथार्त वर्ण को बोलने में जो समय लगता है उसे मात्रा कहते हैं अथार्त किसी वर्ण के उच्चारण काल की अवधि मात्रा कहलाती है।

2. यति :- पद्य का पाठ करते समय गति को तोडकर जो विश्राम दिया जाता है उसे यति कहते हैं। सरल शब्दों में छंद का पाठ करते समय जहाँ पर कुछ देर के लिए रुकना पड़ता है उसे यति कहते हैं। इसे विराम और विश्राम भी कहा जाता है। इनके लिए (,) , (1) , (11) , (?) , (!) चिन्ह निश्चित होते हैं। हर छंद में बीच में रुकने के लिए कुछ स्थान निश्चित होते हैं इसी रुकने को विराम या यति कहा जाता है। यति के ठीक न रहने से छंद में यतिभंग दोष आता है।

3. गति :- पद्य के पथ में जो बहाव होता है उसे गति कहते हैं। अथार्त किसी छंद को पढ़ते समय जब एक प्रवाह का अनुभव होता है उसे गति या लय कहा जाता है। हर छंद में विशेष प्रकार की संगीतात्मक लय होती है जिसे गति कहते हैं। इसके ठीक न रहने पर गतिभंग दोष हो जाता है।

4. तुक :- समान उच्चारण वाले शब्दों के प्रयोग को ही तुक कहा जाता है। छंद में पदांत के अक्षरों की समानता तुक कहलाती है।

तुक के भेद :-

1. तुकांत कविता
2. अतुकांत कविता

1. तुकांत कविता :- जब चरण के अंत में वर्णों की आवृति होती है उसे तुकांत कविता कहते हैं। पद्य प्राय: तुकांत होते हैं। जैसे :- ” हमको बहुत ई भाती हिंदी।
हमको बहुत है प्यारी हिंदी।”

2. अतुकांत कविता :- जब चरण के अंत में वर्णों की आवृति नहीं होती उसे अतुकांत कविता कहते हैं। नई कविता अतुकांत होती है।

जैसे :- “काव्य सर्जक हूँ
प्रेरक तत्वों के अभाव में
लेखनी अटक गई हैं
काव्य-सृजन हेतु
तलाश रहा हूँ उपादान।”

5. गण :- मात्राओं और वर्णों की संख्या और क्रम की सुविधा के लिए तीन वर्णों के समूह को गण मान लिया जाता है। वर्णिक छंदों की गणना गण के क्रमानुसार की जाती है। तीन वर्णों का एक गण होता है। गणों की संख्या आठ होती है। यगण , तगण , लगण , रगण , जगण , भगण , नगण , सगण आदि। गण को जानने के लिए पहले उस गण के पहले तीन अक्षर को लेकर आगे के दो अक्षरों को मिलाकर वह गण बन जाता है।

छंद के प्रकार :-

1. मात्रिक छंद
2. वर्णिक छंद
3. वर्णिक वृत छंद
4. मुक्त छंद

1. मात्रिक छंद :- मात्रा की गणना के आधार पर की गयी पद की रचना को मात्रिक छंद कहते हैं। अथार्त जिन छंदों की रचना मात्राओं की गणना के आधार पर की जाती है उन्हें मात्रिक छंद कहते हैं। जिनमें मात्राओं की संख्या , लघु -गुरु , यति -गति के आधार पर पद रचना की जाती है उसे मात्रिक छंद कहते हैं।

जैसे :- ” बंदऊं गुर्रू पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिअ मुरियम चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू।।” मात्रिक छंद के भेद :-

1. सममात्रिक छंद
2. अर्धमात्रिक छंद
3. विषममात्रिक छंद

1. सममात्रिक छंद :- जहाँ पर छंद में सभी चरण समान होते हैं उसे सममात्रिक छंद कहते हैं। जैसे :- “मुझे नहीं ज्ञात कि मैं कहाँ हूँ
प्रभो! यहाँ हूँ अथवा वहाँ हूँ।”

2. अर्धमात्रिक छंद :- जिसमें पहला और तीसरा चरण एक समान होता है तथा दूसरा और चौथा चरण उनसे अलग होते हैं लेकिन आपस में एक जैसे होते हैं उसे अर्धमात्रिक छंद कहते हैं।

3. विषय मात्रिक छंद :- जहाँ चरणों में दो चरण अधिक समान न हों उसे विषम मात्रिक छंद कहते हैं। ऐसे छंद प्रचलन में कम होते हैं।

 

2. वर्णिक छंद :- जिन छंदों की रचना को वर्णों की गणना और क्रम के आधार पर किया जाता है उन्हें वर्णिक छंद कहते हैं। वृतों की तरह इनमे गुरु और लघु का कर्म निश्चित नहीं होता है बस वर्ण संख्या निश्चित होती है। ये वर्णों की गणना पर आधारित होते हैं।जिनमे वर्णों की संख्या , क्रम , गणविधान , लघु-गुरु के आधार पर रचना होती है।

जैसे :- (i) दुर्मिल सवैया।
(ii) ” प्रिय पति वह मेरा , प्राण प्यारा कहाँ है।
दुःख-जलधि निमग्ना , का सहारा कहाँ है।
अब तक जिसको मैं , देख के जी सकी हूँ।
वह ह्रदय हमारा , नेत्र तारा कहाँ है।

3. वर्णिक वृत छंद :- इसमें वर्णों की गणना होती है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु -गुरु का क्रम सुनिश्चित होता है। इसे सम छंद भी कहते हैं।

जैसे :- मत्तगयन्द सवैया।

4. मुक्त छंद :- मुक्त छंद को आधुनिक युग की देन माना जाता है। जिन छंदों में वर्णों और मात्राओं का बंधन नहीं होता उन्हें मुक्तक छंद कहते हैं अथार्त हिंदी में स्वतंत्र रूप से आजकल लिखे जाने वाले छंद मुक्त छंद होते हैं। चरणों की अनियमित , असमान , स्वछन्द गति और भाव के अनुकूल यति विधान ही मुक्त छंद की विशेषता है। इसे रबर या केंचुआ छंद भी कहते हैं। इनमे न वर्णों की और न ही मात्राओं की गिनती होती है।

जैसे :- ” वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक ,
चल रहा लकुटिया टेक ,
मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलता
दो टूक कलेजे के कर्ता पछताता पथ पर आता। ”

प्रमुख मात्रिक छंद :-

1. दोहा छंद
2. सोरठा छंद
3. रोला छंद
4. गीतिका छंद
5. हरिगीतिका छंद
6. उल्लाला छंद
7. चौपाई छंद
8. बरवै (विषम) छंद
9. छप्पय छंद
10. कुंडलियाँ छंद
11. दिगपाल छंद
12. आल्हा या वीर छंद
13. सार छंद
14. तांटक छंद
15. रूपमाला छंद
16. त्रिभंगी छंद

1. दोहा छंद :- 

यह अर्धसममात्रिक छंद होता है। ये सोरठा छंद के विपरीत होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 13-13 तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं। इसमें चरण के अंत में लघु (1) होना जरूरी होता है।

जैसे :- (i) Sll SS Sl S SS Sl lSl
“कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर।
lll Sl llll lS Sll SS Sl
समय पाय तरुवर फरै, केतक सींचो नीर ।।”

(ii) तेरो मुरली मन हरो, घर अँगना न सुहाय॥
श्रीगुरू चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि !
बरनउं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि !!
रात-दिवस, पूनम-अमा, सुख-दुःख, छाया-धूप।
यह जीवन बहुरूपिया, बदले कितने रूप॥

2. सोरठा छंद :- यह अर्धसममात्रिक छंद होता है। ये दोहा छंद के विपरीत होता है। इसमें पहले और तीसरे चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। यह दोहा का उल्टा होता है। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना जरूरी होता है।तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होता है।

जैसे :- (i) lS l SS Sl SS ll lSl Sl
“कहै जु पावै कौन , विद्या धन उद्दम बिना।
S SS S Sl lS lSS S lS
ज्यों पंखे की पौन, बिना डुलाए ना मिलें।”

(ii) जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥

3. रोला छंद :- यह एक मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 11 और 13 के क्रम से 24 मात्राएँ होती हैं। इसे अंत में दो गुरु और दो लघु वर्ण होते हैं।

जैसे :- (i) SSll llSl lll ll ll Sll S
“नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य चन्द्र युग-मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडन है।
बंदी जन खग-वृन्द, शेष फन सिंहासन है।”

(ii) यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥ 4. गीतिका छंद :- यह मात्रिक छंद होता है। इसके चार चरण होते हैं। हर चरण में 14 और 12 के करण से 26 मात्राएँ होती हैं। अंत में लघु और गुरु होता है। जैसे :- S SS SlSS Sl llS SlS
“हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बने।
ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।”

4. गीतिका छंद:-

गीतिका छन्द एक मात्रिक छन्द है। इसके चार चरण होते है। प्रत्येक चरण में १४ और १२ यति से २६ मात्राएँ होती है। अन्त में क्रमशः लघु-गुरु होता है।

गीतिका चार पदों का एक सम-मात्रिक छंद है. प्रति पंक्ति 26 मात्राएँ होती हैं तथा प्रत्येक पद 14-12 अथवा 12-14 मात्राओं की यति के अनुसार होते हैं. … ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जिनमें तीसरी तथा चौबीसवीं मात्राएँ लघु हों भी तो दसवीं और या सतरहवीं मात्राएँ लघु न हो कर पूर्ववर्ती अक्षर में समाहित हो कर गुरु हो गयी हैं.

जैसे:
“हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिये।
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बने।
ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बनें।”

5. हरिगीतिका छंद :- यह मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर चरण में 16 और 12 के क्रम से 28 मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में लघु गुरु का प्रयोग अधिक प्रसिद्ध है।

जैसे :- SS ll Sll S S S lll SlS llS
“मेरे इस जीवन की है तू, सरस साधना कविता।
मेरे तरु की तू कुसुमित , प्रिय कल्पना लतिका।
मधुमय मेरे जीवन की प्रिय,है तू कल कामिनी।
मेरे कुंज कुटीर द्वार की, कोमल चरण-गामिनी।”

6. उल्लाला छंद :- यह मात्रिक छंद होता है। इसके हर चरण में 15 और 13 के क्रम से 28 मात्राएँ होती है। जैसे :- llS llSl lSl S llSS ll Sl S
“करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण-मूर्ति सर्वेश की।”

7. चौपाई छंद :- यह एक मात्रिक छंद होता है। इसमें चार चरण होते हैं। इसके हर चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। चरण के अंत में गुरु या लघु नहीं होता है लेकिन दो गुरु और दो लघु हो सकते हैं। अंत में गुरु वर्ण होने से छंद में रोचकता आती है। जैसे :- (i) ll ll Sl lll llSS
“इहि विधि राम सबहिं समुझावा
गुरु पद पदुम हरषि सिर नावा।”

(ii) बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुराग॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥

8. विषम छंद :- इसमें पहले और तीसरे चरण में 12 और दूसरे और चौथे चरण में 7 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण और तगण के आने से मिठास बढती है। यति को प्रत्येक चरण के अंत में रखा जाता है। जैसे :- “चम्पक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाय।
जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हिलाय।।”

9. छप्पय छंद :- इस छंद में 6 चरण होते हैं। पहले चार चरण रोला छंद के होते हैं और अंत के दो चरण उल्लाला छंद के होते हैं। प्रथम चार चरणों में 24 मात्राएँ और बाद के दो चरणों में 26-26 या 28-28 मात्राएँ होती हैं।

जैसे :- “नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
नदिया प्रेम-प्रवाह, फूल -तो मंडन है।
बंदी जन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद है, बलिहारी इस वेश की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही,सगुण मूर्ति सर्वेश की।।”

10. कुंडलियाँ छंद :- कुंडलियाँ विषम मात्रिक छंद होता है। इसमें 6 चरण होते हैं। शुरू के 2 चरण दोहा और बाद के 4 चरण उल्लाला छंद के होते हैं। इस तरह हर चरण में 24 मात्राएँ होती हैं।

जैसे :–

(i) “घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध।
बाहर का बक हंस है, हंस घरेलू गिद्ध
हंस घरेलू गिद्ध , उसे पूछे ना कोई।
जो बाहर का होई, समादर ब्याता सोई।
चित्तवृति यह दूर, कभी न किसी की होगी।
बाहर ही धक्के खायेगा , घर का जोगी।।”

(ii) कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह ‘गिरिधर कविराय’, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

(iii) रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान॥
सीप चुने नादान,अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह,इकट्ठा वैसा करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर॥

11. दिगपाल छंद :- इसके हर चरण में 12-12 के विराम से 24 मात्राएँ होती हैं।

जैसे :- “हिमाद्रि तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र तुम, दृढ प्रतिज्ञ सो चलो।
प्रशस्त पुण्य-पंथ है, बढ़े चलो-बढ़े चलो।।”

12. आल्हा या वीर छंद :- इसमें 16 -15 की यति से 31 मात्राएँ होती हैं।

13. सार छंद :- इसे ललित पद भी कहते हैं। सार छंद में 28 मात्राएँ होती हैं। इसमें 16-12 पर यति होती है और बाद में दो गुरु होते हैं।

14. ताटंक छंद :- इसके हर चरण में 16,14 की यति से 30 मात्राएँ होती हैं।

15. रूपमाला छंद :- इसके हर चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। 14 और 10 मैट्रन पर विराम होता है। अंत में गुरु लघु होना चाहिए।

16. त्रिभंगी छंद :- यह छंद 32 मात्राओं का होता है। 10,8,8,6 पर यति होती है और अंत में गुरु होता है।

प्रमुख वर्णिक छंद :-

1. सवैया छंद
2. कवित्त छंद
3. द्रुत विलम्बित छंद
4. मालिनी छंद
5. मंद्रक्रांता छंद
6. इंद्र्व्रजा छंद
7. उपेंद्रवज्रा छंद
8. अरिल्ल छंद
9. लावनी छंद
10. राधिका छंद
11. त्रोटक छंद
12. भुजंग छंद
13. वियोगिनी छंद
14. वंशस्थ छंद
15. शिखरिणी छंद
16. शार्दुल विक्रीडित छंद
17. मत्तगयंग छंद

1. सवैया छंद :- इसके हर चरण में 22 से 26 वर्ण होते हैं। इसमें एक से अधिक छंद होते हैं। ये अनेक प्रकार के होते हैं और इनके नाम भी अलग -अलग प्रकार के होते हैं। सवैया में एक ही वर्णिक गण को बार-बार आना चाहिए। इनका निर्वाह नहीं होता है।

जैसे :- “लोरी सरासन संकट कौ,
सुभ सीय स्वयंवर मोहि बरौ।
नेक ताते बढयो अभिमानंमहा,
मन फेरियो नेक न स्न्ककरी।
सो अपराध परयो हमसों,
अब क्यों सुधरें तुम हु धौ कहौ।
बाहुन देहि कुठारहि केशव,
आपने धाम कौ पंथ गहौ।।”

2. मन हर , मनहरण , घनाक्षरी , कवित्त छंद :- यह वर्णिक सम छंद होता है। इसके हर चरण में 31से 33 वर्ण होते हैं और अंत में तीन लघु होते हैं। 16, 17 वें वर्ण पर विराम होता है। जैसे :- “मेरे मन भावन के भावन के ऊधव के आवन की
सुधि ब्रज गाँवन में पावन जबै लगीं।
कहै रत्नाकर सु ग्वालिन की झौर-झौर
दौरि-दौरि नन्द पौरि,आवन सबै लगीं।
उझकि-उझकि पद-कंजनी के पंजनी पै,
पेखि-पेखि पाती,छाती छोहन सबै लगीं।
हमको लिख्यौ है कहा,हमको लिख्यौ है कहा,
हमको लिख्यौ है कहा,पूछ्न सबै लगी।।”

3. द्रुत विलम्बित छंद :- हर चरण में 12 वर्ण , एक नगण , दो भगण तथा एक सगण होते हैं। जैसे :- “दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु शिखा पर थी अब राजती,
कमलिनी कुल-वल्लभ की प्रभा।।”

4. मालिनी छंद :- इस वर्णिक सम वृत छंद में 15 वर्ण होते हैं दो तगण , एक मगण , दो यगण होते हैं। आठ , सात वर्ण एवं विराम होता है।

जैसे :- “प्रभुदित मथुरा के मानवों को बना के,
सकुशल रह के औ विध्न बाधा बचाके।
निज प्रिय सूत दोनों , साथ ले के सुखी हो,
जिस दिन पलटेंगे, गेह स्वामी हमारे।।”

5. मंदाक्रांता छंद :- इसके हर चरण में 17 वर्ण होते हैं। एक भगण , एक नगण , दो तगण , और दो गुरु होते हैं। 5, 6 तथा 7 वें वर्ण पर विराम होता है। जैसे :- “कोई क्लांता पथिक ललना चेतना शून्य होक़े,
तेरे जैसे पवन में , सर्वथा शान्ति पावे।
तो तू हो के सदय मन, जा उसे शान्ति देना,
ले के गोदी सलिल उसका, प्रेम से तू सुखाना।।”

6. इन्द्रव्रजा छंद :- इसके प्रत्येक चरण में 11 वर्ण , दो जगण और बाद में 2 गुरु होते हैं। जैसे :- “माता यशोदा हरि को जगावै।
प्यारे उठो मोहन नैन खोलो।
द्वारे खड़े गोप बुला रहे हैं।
गोविन्द, दामोदर माधवेति।।”

7. उपेन्द्रव्रजा छंद :- इसके प्रत्येक चरण में 11 वर्ण , 1 नगण , 1 तगण , 1 जगण और बाद में 2 गुरु होता हैं।

जैसे :- “पखारते हैं पद पद्म कोई,
चढ़ा रहे हैं फल -पुष्प कोई।
करा रहे हैं पय-पान कोई
उतारते श्रीधर आरती हैं।।”

8. अरिल्ल छंद :- हर चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में लघु या यगण होना चाहिए।

जैसे :- “मन में विचार इस विधि आया।
कैसी है यह प्रभुवर माया।
क्यों आगे खड़ी है विषम बाधा।
मैं जपता रहा, कृष्ण-राधा।।

9. लावनी छंद :- इसके हर चरण में 22 मात्राएँ और चरण के अंत में गुरु होते हैं।

जैसे :- “धरती के उर पर जली अनेक होली।
पर रंगों से भी जग ने फिर नहलाया।
मेरे अंतर की रही धधकती ज्वाला।
मेरे आँसू ने ही मुझको बहलाया।।”

10. राधिका छंद :- इसके हर चरण में 22 मात्राएँ होती हैं। 13 और 9 पर विराम होता है।

जैसे :- “बैठी है वसन मलीन पहिन एक बाला।
बुरहन पत्रों के बीच कमल की माला।
उस मलिन वसन म, अंग-प्रभा दमकीली।
ज्यों धूसर नभ में चंद्रप्रभा चमकीली।।”

11. त्रोटक छंद :- इसके हर चरण में 12 मात्रा और 4 सगण होते हैं। जैसे :- “शशि से सखियाँ विनती करती,
टुक मंगल हो विनती करतीं।
हरि के पद-पंकज देखन दै
पदि मोटक माहिं निहारन दै।।”

12. भुजंगी छंद :- हर चरण में 11 वर्ण , तीन सगण , एक लघु और एक गुरु होता है। जैसे :- “शशि से सखियाँ विनती करती,
टुक मंगल हो विनती करतीं।
हरि के पद-पंकज देखन दै
पदि मोटक माहिं निहारन दै।।”

13. वियोगिनी छंद :- इसके सम चरण में 11-11 और विषम चरण में 10 वर्ण होते हैं। विषम चरणों में दो सगण , एक जगण , एक सगण और एक लघु व एक गुरु होते हैं।

जैसे :- “विधि ना कृपया प्रबोधिता,
सहसा मानिनि सुख से सदा
करती रहती सदैव ही
करुण की मद-मय साधना।।”

14. वंशस्थ छंद :- इसके हर चरण में 12 वर्ण , एक नगण , एक तगण , एक जगण और एक रगण होते हैं।

जैसे :- “गिरिन्द्र में व्याप्त विलोकनीय थी,
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी
असेत जम्बालिनी कूल जम्बुकीय।।”

15. शिखरिणी छंद :- इसमें 17 वर्ण होते हैं। इसके हर चरण में यगण , मगण , नगण , सगण , भगण , लघु और गुरु होता है।

16. शार्दुल विक्रीडित छंद :- इसमें 19 वर्ण होते हैं। 12 , 7 वर्णों पर विराम होता है। हर चरण में मगण , सगण , जगण , सगण , तगण , और बाद में एक गुरु होता है।

17. मत्तगयंग छंद :- इसमें 23 वर्ण होते हैं। हर चरण में सात सगण और दो गुरु होते हैं।

 

काव्य में छंद का महत्व :-

छंद से ह्रदय का संबंध बोध होता है। छंद से मानवीय भावनाएँ झंकृत होती हैं। छंदों में स्थायित्व होता है। छंद के सरस होने के कारण मन को भाते हैं।

जैसे :- भभूत लगावत शंकर को, अहिलोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को, तब अंमृत बूंद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर, गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी-सुत वाहन भाग चले, तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥

अलंकार:

अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – अलम + कार। यहाँ पर अलम का अर्थ होता है ‘ आभूषण।’ मानव समाज बहुत ही सौन्दर्योपासक है उसकी प्रवर्ती के कारण ही अलंकारों को जन्म दिया गया है। जिस तरह से एक नारी अपनी सुन्दरता को बढ़ाने के लिए आभूषणों को प्रयोग में लाती हैं उसी प्रकार भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग किया जाता है। अथार्त जो शब्द काव्य की शोभा को बढ़ाते हैं उसे अलंकार कहते हैं।

साहित्यों में रस और शब्द की शक्तियों की प्रासंगिकता गद्य और पद्य दोनों में ही की जाती है परंतु कविता में इन दोनों के अलावा भी अलंकार, छंद और बिंब का प्रयोग किया जाता है जो कविता में विशिष्टता लाने का काम करता है हालाँकि पाठ्यक्रम में कविताओं को अपना आधार मानकर ही अलंकार, छंद, बिंब और रस की विवेचना की जाती है।

उदाहरण :- ‘भूषण बिना न सोहई – कविता, बनिता मित्त।’

अलंकार के प्रयोग का आधार :

कोई भी कवी कथनीय वास्तु को अच्छी से अच्छी अभिव्यक्ति देने की सोच से अलंकारों को प्रयुक्त करता है जिनके द्वारा वह अपने भावों को उत्कर्ष प्रदान करता है या फिर रूप, गुण या क्रिया का अधिक अनुभव कराता है। कवी के मन का ओज ही अलंकारों का असली कारण होता है। जो व्यक्ति रुचिभेद आएँबर या चमत्कारप्रिय होता है वह व्यक्ति अपने शब्दों में शब्दालंकार का प्रयोग करता है लेकिन जो व्यक्ति भावुक होता है वह व्यक्ति अर्थालंकार का प्रयोग करता है।

अलंकार के भेद (Types of Alankar)
शब्दालंकार
अर्थालंकार
उभयालंकार

1. शब्दालंकार

शब्दालंकार दो शब्दों से मिलकर बना होता है – शब्द + अलंकार। शब्द के दो रूप होते हैं – ध्वनी और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। जब अलंकार किसी विशेष शब्द की स्थिति में ही रहे और उस शब्द की जगह पर कोई और पर्यायवाची शब्द के रख देने से उस शब्द का अस्तित्व न रहे उसे शब्दालंकार कहते हैं।

अर्थार्त जिस अलंकार में शब्दों को प्रयोग करने से चमत्कार हो जाता है और उन शब्दों की जगह पर समानार्थी शब्द को रखने से वो चमत्कार समाप्त हो जाये वहाँ शब्दालंकार होता है।

शब्दालंकार के भेद :-
अनुप्रास अलंकार
यमक अलंकार
पुनरुक्ति अलंकार
विप्सा अलंकार
वक्रोक्ति अलंकार
शलेष अलंकार

अनुप्रास अलंकार क्या होता है :-

अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – अनु + प्रास | यहाँ पर अनु का अर्थ है- बार-बार और प्रास का अर्थ होता है – वर्ण। जब किसी वर्ण की बार – बार आवर्ती हो तब जो चमत्कार होता है उसे अनुप्रास अलंकार कहते है।

जैसे :- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप।।

अनुप्रास के भेद :- छेकानुप्रास अलंकार वृत्यानुप्रास अलंकार लाटानुप्रास अलंकार अन्त्यानुप्रास अलंकार श्रुत्यानुप्रास अलंकार

1. छेकानुप्रास अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर स्वरुप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृति एक बार हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है।

जैसे :- रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै।
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।।

2. वृत्यानुप्रास अलंकार क्या होता है :-

जब एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार हो वहाँ वृत्यानुप्रास अलंकार कहते हैं।

जैसे :- “चामर-सी, चन्दन – सी, चंद – सी,
चाँदनी चमेली चारु चंद-सुघर है।”

3. लाटानुप्रास अलंकार क्या होता है :-

जहाँ शब्द और वाक्यों की आवर्ती हो तथा प्रत्येक जगह पर अर्थ भी वही पर अन्वय करने पर भिन्नता आ जाये वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है। अथार्त जब एक शब्द या वाक्य खंड की आवर्ती उसी अर्थ में हो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है।

जैसे :- तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

4. अन्त्यानुप्रास अलंकार क्या होता है :-

जहाँ अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है। जैसे :- “लगा दी किसने आकर आग।
कहाँ था तू संशय के नाग?”

5. श्रुत्यानुप्रास अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवर्ती हो उसे श्रुत्यानुप्रास अलंकार कहते है।

जैसे :- “दिनान्त था, थे दीननाथ डुबते,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे।”

2. यमक अलंकार क्या होता है :-

यमक शब्द का अर्थ होता है – दो। जब एक ही शब्द ज्यादा बार प्रयोग हो पर हर बार अर्थ अलग-अलग आये वहाँ पर यमक अलंकार होता है।

जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराए नर, वा पाये बौराये।

3. पुनरुक्ति अलंकार क्या है :-

पुनरुक्ति अलंकार दो शब्दों से मिलकर बना है – पुन: +उक्ति। जब कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

4. विप्सा अलंकार क्या है :-

जब आदर, हर्ष, शोक, विस्मयादिबोधक आदि भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए शब्दों की पुनरावृत्ति को ही विप्सा अलंकार कहते है।

जैसे :- मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधामय।
राधा मन मोहि-मोहि मोहन मयी-मयी।।

5. वक्रोक्ति अलंकार क्या है :-

जहाँ पर वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का श्रोता अलग अर्थ निकाले उसे वक्रोक्ति अलंकार कहते है।

वक्रोक्ति अलंकार के भेद :-

काकु वक्रोक्ति अलंकार
श्लेष वक्रोक्ति अलंकार

1. काकु वक्रोक्ति अलंकार क्या है :-

जब वक्ता के द्वारा बोले गये शब्दों का उसकी कंठ ध्वनी के कारण श्रोता कुछ और अर्थ निकाले वहाँ पर काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है। जैसे :- मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।

2. श्लेष वक्रोक्ति अलंकार क्या है :-

जहाँ पर श्लेष की वजह से वक्ता के द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकाला जाये वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है। जैसे :- को तुम हौ इत आये कहाँ घनस्याम हौ तौ कितहूँ बरसो।
चितचोर कहावत है हम तौ तहां जाहुं जहाँ धन सरसों।।

6. श्लेष अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर कोई एक शब्द एक ही बार आये पर उसके अर्थ अलग अलग निकलें वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

जैसे :- रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरै मोती मानस चून।।

अर्थ – यह दोहा रहीम जी का है जिसमें रहीम जी ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है जिसमें पानी का पहला अर्थ आदमी या मनुष्य के संदर्भ में है जिसका मतलब विनम्रता से है क्योंकि मनुष्य में हमेशा विनम्रता होनी चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ चमक या तेज से है जिसके बिना मोतियों का कोई मूल्य नहीं होता है। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे को गूथने या जोड़ने में दिखाया गया है क्योंकि पानी के बिना आटे का अस्तित्व नम्र नहीं हो सकता है और मोती का मूल्य उसकी चमक के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह से मनुष्य को भी अपने व्यवहार को हमेशा पानी की ही भांति विनम्र रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है।

श्लेष अलंकार के भेद :
अभंग श्लेष अलंकार
सभंग श्लेष अलंकार

1. अभंग श्लेष अलंकार :-

जिस अलंकार में शब्दों को बिना तोड़े ही एक से अधिक या अनेक अर्थ निकलते हों वहां पर अभंग श्लेष अलंकार होता है।

जैसे :- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।।

अर्थ – यह दोहा रहीम जी का है जिसमें रहीम जी ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है जिसमें पानी का पहला अर्थ आदमी या मनुष्य के संदर्भ में है जिसका मतलब विनम्रता से है क्योंकि मनुष्य में हमेशा विनम्रता होनी चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ चमक या तेज से है जिसके बिना मोतियों का कोई मूल्य नहीं होता है। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे को गूथने या जोड़ने में दिखाया गया है क्योंकि पानी के बिना आटे का अस्तित्व नम्र नहीं हो सकता है और मोती का मूल्य उसकी चमक के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह से मनुष्य को भी अपने व्यवहार को हमेशा पानी की ही भांति विनम्र रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है।

2. सभंग श्लेष अलंकार :-

जिस अलंकार में शब्दों को तोडना बहुत अधिक आवश्यक होता है क्योंकि शब्दों को तोड़े बिना उनका अर्थ न निकलता हो वहां पर सभंग श्लेष अलंकार होता है। जैसे :- सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित।

2. अर्थालंकार क्या होता है

जहाँ पर अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है। अर्थालंकार के भेद उपमा अलंकार रूपक अलंकार उत्प्रेक्षा अलंकार द्रष्टान्त अलंकार संदेह अलंकार अतिश्योक्ति अलंकार उपमेयोपमा अलंकार प्रतीप अलंकार अनन्वय अलंकार भ्रांतिमान अलंकार दीपक अलंकार अपहृति अलंकार व्यतिरेक अलंकार विभावना अलंकार विशेषोक्ति अलंकार अर्थान्तरन्यास अलंकार उल्लेख अलंकार विरोधाभाष अलंकार असंगति अलंकार मानवीकरण अलंकार अन्योक्ति अलंकार काव्यलिंग अलंकार स्वभावोती अलंकार

1. उपमा अलंकार क्या होता है :-

उपमा शब्द का अर्थ होता है – तुलना। जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना किसी दूसरे यक्ति या वस्तु से की जाए वहाँ पर उपमा अलंकार होता है। जैसे :- सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन।

उपमा अलंकार के अंग :- उपमेय उपमान वाचक शब्द साधारण धर्म

1. उपमेय क्या होता है :-

उपमेय का अर्थ होता है – उपमा देने के योग्य। अगर जिस वस्तु की समानता किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहाँ पर उपमेय होता है।

2.उपमान क्या होता है :-

उपमेय की उपमा जिससे दी जाती है उसे उपमान कहते हैं। अथार्त उपमेय की जिस के साथ समानता बताई जाती है उसे उपमान कहते हैं।

3. वाचक शब्द क्या होता है :-

जब उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है तब जिस शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे वाचक शब्द कहते हैं।

4. साधारण धर्म क्या होता है :-

दो वस्तुओं के बीच समानता दिखाने के लिए जब किसी ऐसे गुण या धर्म की मदद ली जाती है जो दोनों में वर्तमान स्थिति में हो उसी गुण या धर्म को साधारण धर्म कहते हैं।

उपमा अलंकार के भेद :-

पूर्णोपमा अलंकार
लुप्तोपमा अलंकार

1. पूर्णोपमा अलंकार क्या होता है :-

इसमें उपमा के सभी अंग होते हैं – उपमेय, उपमान, वाचक शब्द, साधारण धर्म आदि अंग होते हैं वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है। जैसे :- सागर-सा गंभीर ह्रदय हो,
गिरी-सा ऊँचा हो जिसका मन। 22.

लुप्तोपमा अलंकार क्या होता है :-

इसमें उपमा के चारों अगों में से यदि एक या दो का या फिर तीन का न होना पाया जाए वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है। जैसे :- कल्पना सी अतिशय कोमल। जैसा हम देख सकते हैं कि इसमें उपमेय नहीं है तो इसलिए यह लुप्तोपमा का उदहारण है।

2. रूपक अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर न दिखाई दे वहाँ रूपक अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर उपमेय और उपमान के बीच के भेद को समाप्त करके उसे एक कर दिया जाता है वहाँ पर रूपक अलंकार होता है। जैसे :- “उदित उदय गिरी मंच पर, रघुवर बाल पतंग।
विगसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग।।”

रूपक अलंकार की निम्न बातें :-

उपमेय को उपमान का रूप देना। वाचक शब्द का लोप होना। उपमेय का भी साथ में वर्णन होना।

रूपक अलंकार के भेद :-

सम रूपक अलंकार अधिक रूपक अलंकार न्यून रूपक अलंकार

i. सम रूपक अलंकार क्या होता है :- इसमें उपमेय और उपमान में समानता दिखाई जाती है वहाँ पर सम रूपक अलंकार होता है। जैसे :- बीती विभावरी जागरी. अम्बर – पनघट में डुबा रही, तारघट उषा – नागरी।

ii.अधिक रूपक अलंकार क्या होता है :- जहाँ पर उपमेय में उपमान की तुलना में कुछ न्यूनता का बोध होता है वहाँ पर अधिक रूपक अलंकार होता है।

iii. न्यून रूपक अलंकार क्या होता है :– इसमें उपमान की तुलना में उपमेय को न्यून दिखाया जाता है वहाँ पर न्यून रूपक अलंकार होता है। जैसे :- जनम सिन्धु विष बन्धु पुनि, दीन मलिन सकलंक
सिय मुख समता पावकिमि चन्द्र बापुरो रंक।।

3. उत्प्रेक्षा अलंकार क्या होता है :- जहाँ पर उपमान के न होने पर उपमेय को ही उपमान मान लिया जाए। अथार्त जहाँ पर अप्रस्तुत को प्रस्तुत मान लिया जाए वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। अगर किसी पंक्ति में मनु, जनु, मेरे जानते, मनहु, मानो, निश्चय, ईव आदि आते हैं वहां पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे :- सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल
बाहर सोहत मनु पिये, दावानल की ज्वाल।।

उत्प्रेक्षा अलंकार के भेद :-
वस्तुप्रेक्षा अलंकार
हेतुप्रेक्षा अलंकार
फलोत्प्रेक्षा अलंकार
1. वस्तुप्रेक्षा अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत की संभावना दिखाई जाए वहाँ पर वस्तुप्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे :- “सखि सोहत गोपाल के, उर गुंजन की माल।
बाहर लसत मनो पिये, दावानल की ज्वाल।।”

2. हेतुप्रेक्षा अलंकार क्या होता है :

– जहाँ अहेतु में हेतु की सम्भावना देखी जाती है। अथार्त वास्तविक कारण को छोडकर अन्य हेतु को मान लिया जाए वहाँ हेतुप्रेक्षा अलंकार होता है।

3. फलोत्प्रेक्षा अलंकार क्या होता है :-

इसमें वास्तविक फल के न होने पर भी उसी को फल मान लिया जाता है वहाँ पर फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे :- खंजरीर नहीं लखि परत कुछ दिन साँची बात।
बाल द्रगन सम हीन को करन मनो तप जात।।

4. दृष्टान्त अलंकार क्या होता है :-

जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्यों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होता हो वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती-जुलती बात उपमान रूप में दुसरे वाक्य में होती है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

जैसे :- ‘एक म्यान में दो तलवारें, कभी नहीं रह सकती हैं। किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है।।

5. संदेह अलंकार क्या होता है :-

जब उपमेय और उपमान में समता देखकर यह निश्चय नहीं हो पाता कि उपमान वास्तव में उपमेय है या नहीं। जब यह दुविधा बनती है , तब संदेह अलंकार होता है अथार्त जहाँ पर किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर संशय बना रहे वहाँ संदेह अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।

जैसे :- यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया। संदेह अलंकार की मुख्य बातें :- विषय का अनिश्चित ज्ञान। यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो। अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।

6. अतिश्योक्ति अलंकार क्या होता है :-

जब किसी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करने में लोक समाज की सीमा या मर्यादा टूट जाये उसे अतिश्योक्ति अलंकार कहते हैं अथार्त जब किसी वस्तु का बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाये वहां पर अतिश्योक्ति अलंकार होता है। जैसे :- हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि।
सगरी लंका जल गई, गये निसाचर भागि।

7. उपमेयोपमा अलंकार क्या होता है :-

इस अलंकार में उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की कोशिश की जाती है इसमें उपमेय और उपमान की एक दूसरे से उपमा दी जाती है। जैसे :- तौ मुख सोहत है ससि सो अरु सोहत है ससि तो मुख जैसो।

8. प्रतीप अलंकार क्या होता है :-

इसका अर्थ होता है उल्टा। उपमा के अंगों में उल्ट – फेर करने से अथार्त उपमेय को उपमान के समान न कहकर उलट कर उपमान को ही उपमेय कहा जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है। इस अलंकार में दो वाक्य होते हैं एक उपमेय वाक्य और एक उपमान वाक्य। लेकिन इन दोनों वाक्यों में सदृश्य का साफ कथन नहीं होता, वह व्यंजित रहता है। इन दोनों में साधारण धर्म एक ही होता है परन्तु उसे अलग-अलग ढंग से कहा जाता है।

जैसे :- “नेत्र के समान कमल है।”

9. अनन्वय अलंकार क्या होता है :-

जब उपमेय की समता में कोई उपमान नहीं आता और कहा जाता है कि उसके समान वही है, तब अनन्वय अलंकार होता है।

जैसे :- “यद्यपि अति आरत – मारत है. भारत के सम भारत है।

10. भ्रांतिमान अलंकार क्या होता है :-

जब उपमेय में उपमान के होने का भ्रम हो जाये वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है अथार्त जहाँ उपमान और उपमेय दोनों को एक साथ देखने पर उपमान का निश्चयात्मक भ्रम हो जाये मतलब जहाँ एक वस्तु को देखने पर दूसरी वस्तु का भ्रम हो जाए वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी अंग माना जाता है।

जैसे :- पायें महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एडी भीड़त जाये।।

11.दीपक अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर प्रस्तुत और अप्रस्तुत का एक ही धर्म स्थापित किया जाता है वहाँ पर दीपक अलंकार होता है। जैसे :- चंचल निशि उदवस रहें, करत प्रात वसिराज।
अरविंदन में इंदिरा, सुन्दरि नैनन लाज।।

12. अपहृति अलंकार क्या होता है :-

अपहृति का अर्थ होता है छिपाव। जब किसी सत्य बात या वस्तु को छिपाकर उसके स्थान पर किसी झूठी वस्तु की स्थापना की जाती है वहाँ अपहृति अलंकार होता है। यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है। जैसे :- “सुनहु नाथ रघुवीर कृपाला,
बन्धु न होय मोर यह काला।”

13. व्यतिरेक अलंकार क्या होता है :-

व्यतिरेक का शाब्दिक अर्थ होता है आधिक्य। व्यतिरेक में कारण का होना जरुरी है। अत: जहाँ उपमान की अपेक्षा अधिक गुण होने के कारण उपमेय का उत्कर्ष हो वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है। जैसे :- का सरवरि तेहिं देउं मयंकू। चांद कलंकी वह निकलंकू।।
मुख की समानता चन्द्रमा से कैसे दूँ?

14. विभावना अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर कारण के न होते हुए भी कार्य का हुआ जाना पाया जाए वहाँ पर विभावना अलंकार होता है। जैसे :- बिनु पग चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै विधि नाना।
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।

15.विशेषोक्ति अलंकार क्या होता है :-

काव्य में जहाँ कार्य सिद्धि के समस्त कारणों के विद्यमान रहते हुए भी कार्य न हो वहाँ पर विशेषोक्ति अलंकार होता है। जैसे :- नेह न नैनन को कछु, उपजी बड़ी बलाय।
नीर भरे नित-प्रति रहें, तऊ न प्यास बुझाई।।

16.अर्थान्तरन्यास अलंकार क्या होता है :-

जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाये वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। जैसे :- बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बडाई पाए।
कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाए।।

17. उल्लेख अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर किसी एक वस्तु को अनेक रूपों में ग्रहण किया जाए, तो उसके अलग-अलग भागों में बटने को उल्लेख अलंकार कहते हैं। अथार्त जब किसी एक वस्तु को अनेक प्रकार से बताया जाये वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है। जैसे :- विन्दु में थीं तुम सिन्धु अनन्त एक सुर में समस्त संगीत।

18. विरोधाभाष अलंकार क्या होता है :-

जब किसी वस्तु का वर्णन करने पर विरोध न होते हुए भी विरोध का आभाष हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है। जैसे :- ‘आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के।
शून्य हूँ जिसमें बिछे हैं पांवड़े पलकें।’

19. असंगति अलंकार क्या होता है :-

जहाँ आपतात: विरोध दृष्टिगत होते हुए, कार्य और कारण का वैयाधिकरन्य रणित हो वहाँ पर असंगति अलंकार होता है। जैसे :- “ह्रदय घाव मेरे पीर रघुवीरै।”

20. मानवीकरण अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर काव्य में जड़ में चेतन का आरोप होता है वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है अथार्त जहाँ जड़ प्रकृति पर मानवीय भावनाओं और क्रियांओं का आरोप हो वहाँ पर मानवीकरण अलंकार होता है। जब प्रकृति के द्वारा निर्मित चीजों में मानवीय भावनाओं के होने का वर्णन किया जाए वहां पर मानवीकरण अलंकार होता है।

जैसे :- बीती विभावरी जागरी, अम्बर पनघट में डुबो रही तास घट उषा नगरी।

21. अन्योक्ति अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए वहाँ पर अन्योक्ति अलंकार होता है। जैसे :- फूलों के आस-पास रहते हैं, फिर भी काँटे उदास रहते हैं।

22. काव्यलिंग अलंकार क्या होता है :-

जहाँ पर किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को काव्यलिंग अलंकार कहते हैं अथार्त जहाँ पर किसी बात के समर्थन में कोई-न-कोई युक्ति या कारण जरुर दिया जाता है। जैसे :- कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
उहि खाय बौरात नर, इहि पाए बौराए।।

23. स्वभावोक्ति अलंकार क्या होता है :-

किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को स्वभावोक्ति अलंकार कहते हैं।

जैसे :- सीस मुकुट कटी काछनी, कर मुरली उर माल।
इहि बानिक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल।।

3. उभयालंकार जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आधारित रहकर दोनों को चमत्कारी करते हैं वहाँ उभयालंकार होता है। जैसे :- ‘कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।’

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Hindi Pedagogy

Hindi Pedagogy For CTET,MP TET, UPTET Exams

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Hindi Pedagogy Questions For MP TET

इस पोस्ट में  हमने Hindi Pedagogy से संबंधित बहुविकल्पीय प्रश्न उत्तर को आप सभी के साथ  साझा किए हैं, जो कि आगामी शिक्षक भर्ती परीक्षा जैसे कि MP TET grade 3,CTET, एवं अन्य TET की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 

Top 15 MCQ Questions For Hindi Pedagogy 

1 भाषा शिक्षण की पद्धति नहीं है?

(1) मॉण्टेसरी 

(2) किण्डरगार्टन

 (3) डैव्राली 

(4) अभिक्रमित अनुदेशन

 Ans : (4) 

2  ‘बालक की प्रारम्भिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में दी जाये’ यह मानना है?

 (1) महात्मा गाँधी का

 (2) मॉण्टेसरी का

 (3) प्रॉबेल का 

(4) क्लिपैट्रिक का

Ans : (1)

3  व्याकरण शिक्षण के लिये उपयुक्त नहीं है?

 (1) निगमन प्रणाली 

(2) आगमन प्रणाली

 (3) अव्याकृति प्रणाली

 (4) कक्षाभिनय प्रणाली

 Ans : (4) 

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4  हिन्दी गद्य-शिक्षण की पाठ-योजना में उद्देश्य कथन आता है?

 (1) प्रस्तावना प्रश्न के पश्चात्‌ 

(2) पूर्वज्ञान

 (3) आदर्श वाचन के पश्चात्‌

 (4) मौन वाचन के पहले 

Ans : (1) 

 5 शब्द का अर्थ स्पष्ट करने हेतु कौन सा तरीका सर्वाधिक उपयुक्त है?

 (1) व्याख्यान

 (2) वाक्यप्रयोग

 (3) भ्रमण 

(4) चित्र-निर्माण 

Ans : (2) 

6  वाचन के समय पुस्तक की आँखों से दूरी होनी चाहिए? 

(1) 10 इंच

 (2) 9 इंच

 (3) 11 इंच

 (4) 12 इंच 

Ans : (4) 

  7  किस दृश्य-उपकरण में पारदर्शी (ट्रांसपरेन्सी) का प्रयोग होता है?

 (1) स्लाइड प्रक्षेपक (प्रोजेक्टर) में 

(2) ओवरहैंड प्रक्षेपक (प्रोजेक्टर) में 

(3) अपारदर्शी प्रक्षेपक (ओपेक प्रोजेक्टर) या एपिडाइस्कोप में

 (4) फिल्म स्ट्रिप में

 Ans : (2) 

8  मौन पठन के विषय में धारणा है? 

(1) एकाग्रचित होकर पढ़ने का अभ्यास होता है 

(2) इसमें पठन की गति धीमी हो जाती है

 (3) पढ़ने की धीमी ध्वनि होंठों से निकलती है 

(4) इसे आदर्श वाचन के तुरन्त बाद किया जाता है 

Ans : (1) 

9 प्रभाव के नियम के अनुसार उद्दीपक एवं अनुक्रिया का सहयोग होता है?

(1)  सुखद

(2)  दुखद 

(3) 1  और 2  दोनों

(4)  उदासीन 

Ans : (3)

10 भाषा शिक्षण के सिद्धांतों के प्रस्तुतीकरण का संबंध प्रमुख रूप से होता है?

(1)  छात्र से

(2)  शिक्षक से

(3)  कक्षा के वातावरण से

(4)  गतिविधियों से

Ans : (2) 

NCF 2005 important Notes ‹‹‹Click Here

11 भाषा शिक्षण के चुनाव की जाने वाली शिक्षण विधि किस पर आधारित होनी चाहिए?

(1)  बाल केंद्रीयकरण पर

(2)  शिक्षक केंद्रीयकरण पर

(3)  प्रयोग पर

(4)  गतिविधियों  पर 

Ans : (1) 

12 भाषा शिक्षण में सरल से कठिन की ओर शिक्षण करना है?

(1)  शिक्षण सिद्धांत

(2)  शिक्षण सूत्र

(3)  वैज्ञानिकता पर

(4)  दार्शनिकता पर

Ans :  (2) 

13 शिक्षक द्वारा सामान्य रूप से बालक में किस भाषा कौशल का विकास किया जाता है?

(1)  श्रवण का

(2)   वाचन का

(3)  पठन का

(4)  लेखन का

Ans :  (1)

14  श्रवण कौशल को छात्रों द्वारा अधिगम उपकरण के रूप में प्रयोग किया जाता है?

(1)  कहानी कविता एवं निबंध शिक्षण संबंधी नियमों को सुनकर

(2)  एक दूसरे को सुना कर

(3)  एक दूसरे से बोलकर 

(4) 1 एवं  2  दोनों

Ans : (4) 

15 भाषा के अन्य विषयों से संबंधित कार्य है?

(1)  अन्य विषयों के शिक्षण का माध्यम

(2)  अन्य विषयों के प्रस्तुतीकरण का माध्यम

(3) 1  एवं 2  दोनों

(4)  प्रयोग का माध्यम

Ans :  (3) 

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